Saturday, October 16, 2010

प्रेम के मौसम

सूखे मौसम की सुस्ती में,
जब जब धरती जलती है।
मेरी अलसाती आँखों में,
तेरी कितनी यादें पलती हैं।

जब बारिश की रिमझिम में,
भीगी ये दुनिया हंसती है।
मेरी सिलती हुई दीवारें,
तेरी खुशबु को तरसती हैं।

बसंत की मद्धम सर्दी में,
सब बहके बहके लगते हैं।
मेरे अंदर कहीं विरानो में,
चन्दन के वन सुलगते हैं।

शरद की रातों में अक्सर,
प्रेम तड़पता गाता है।
सब दुबके चैन से सोते है,
मेरा चैन तो आता जाता है।

यूँ मौसम बीते, साल गए,
एक दिल फिर भी विराना है.
तू ठहरी न कुछ पल भी वहां,
जहाँ रोज़ का आना जाना है.

Tuesday, September 21, 2010

यादो से अब दिल बहलता नहीं

आ जाओ ज़रा तुम एक बार फ़िर से,यादो से अब दिल बहलता नहीं।
मेरी गली के बच्चे गुमसुम हुए हैं,
पेडो पे झूले भी खाली पड़े हैं॥
नई कलियों में खुशबु उगाये न उगती॥
सुबह शाम हालाँकि माली पड़े हैं॥
वो नुक्कड़ की दादी का सब्जी का थैला,एक शाम भी मुझसे संभलता नहीं।
आ जाओ ज़रा तुम एक बार फ़िर से,यादो से अब दिल बहलता नहीं।
सुबहे तनहा और शामें अकेली।
प्यासे परिंदे रोज़ खिड़की पे उतरें। रात खाने की मेज़ पर तेरे चहेते,
एक साथ बैठते हैं मगर बिखरे बिखरे॥
मैं भी लाता हूँ हर दिन मिठाई के डिब्बे एक बच्चा भी लेकिन मचलता नहीं,
आ जाओ ज़रा तुम एक बार फ़िर से,यादो से अब दिल बहलता नहीं।
गर्द कपड़ो पे मेरे छाने लगी है॥
कंघी और मोजे कल सड़क पे मिले॥
बालकनी में मुरझाती बेली की कलियाँ...
आके पानी में रख दो तो फ़िर से खिले॥
कलेंडर के पन्ने हर दिन पलटता,दिन लेकिन फ़िर भी बदलता नहीं।
आ जाओ ज़रा तुम एक बार फ़िर से,यादो से अब दिल बहलता नहीं।
गुस्सा,नफरत,जलन हिकारत॥
सब नामो से मुहब्बत अब भारी हुई है.
मुझे हक है एक मुआफी का तेरे।
माना मुझसे गलतियाँ सारी हुई हैं॥
वो दिल में जो जमा है अफ़सोस का नमक,दिन रात रोके भी पिघलता नहीं।
आ जाओ ज़रा तुम एक बार फ़िर से,यादो से अब दिल बहलता नहीं।

प्यार के आर पार

प्यार के इस पार हूँ मैं, प्यार के उस पार तुम,

बीच का दरिया है गहरा, न पार मैं न पार तुम ।

प्यार एक चलती सड़क है, इसके कोलाहल को सुन,

उसपे कोई रुकता नहीं, रफ़्तार मैं,रफ़्तार तुम।

प्यार कागज़ पे छपा, प्यार कुछ शब्दों में ग़ुम

कहने को साथ हैं मगर, खबर मैं, अख़बार तुम।

प्यार तलवारों की जंग, जंग की चीखे भी सुन,

प्यार ही घायल है रण में, न जीत मैं, न हार तुम।

प्यार की बोली लगी है, यूँ प्यार के सपने न बुन,

है हस्ती तो आ खरीद ले, बाज़ार मैं, बाज़ार तुम।

प्यार के इस पार हूँ मैं, प्यार के उस पार तुम॥

Saturday, July 24, 2010

थोडा जीवन...

अधूरा सा है सब कुछ...
कोई गहराता अँधेरा हूँ मैं।
दौड़ रहे हैं सबलोग...
जाने क्यूँ ठहरा हूँ मैं॥

क्यूँ जो एक टीस सी है,
दिल से हटती ही नहीं...
पीड़ा की अमरबेल है कोई,
उम्र घटती ही नहीं॥

आंसूं खारे पानी से...
ज्यादा कुछ लगते नहीं,
दिल नमक का दलदल है...
फूल यहाँ उगते नहीं॥

तनहाइयों के दिन बरस,
मिल मिल के पत्थर बन गए...
सपनो के कोरे कागज़ पे,
पसीने रिस के अक्षर बन गए॥

बस एक तलाश है की...
एक हाथ बढ़ के थाम ले,
आंसू आँखों से पोंछ ले,
और शायद मेरा नाम ले...

वैसे महंगा लगता है,
पर सौदा सच में सस्ता है...
इस "शायद" और "सपने" के बीच,
थोडा "जीवन" तो बसता है...

Friday, July 23, 2010

एक कविता निराशा के नाम...

मुझे मुहब्बत है...
हाँ मैं मुहब्बत करता हूँ॥
और इसी में बेबस॥
दिन रात जीता मरता हूँ॥

इस मुहब्बत का हासिल कोई नहीं,
जानता हूँ मैं...
इसके दोगले चरित्र को
पहचानता हूँ मैं॥

साथ इसके चला हूँ,
पहले भी॥
ये बला ख़ुशी तो लाई...मगर॥
फिर वो तन्हाई...हाय तन्हाई...

थका, टूटा, हारा, गिरा,
फिर से पकड़ा उसी रस्सी का सिरा॥
उन्ही रास्तो पे फिर चला,
जाने कितने हादसों में पला॥

टूटे कांच की किरचें
आँखों में धंसी हैं,सपने बिखरे हैं॥
मगर फिर भी एक नए ख्वाब के,
जाने क्यूँ अक्स उभरे हैं..

हाँ, मुहब्बत है मुझे...
उन बेकार जानो से॥
जिन्होंने सुबह देखी नहीं॥
ज़मीं या आसमानों से॥

मुहब्बत मुझे उनसे भी है...
जिनके बेदाग रूह॥
बेस्वाद बिस्तरों पे सज सजके
उकता चुके..पर क्या करें॥

मुहब्बत तो एक फिकरा हैं न॥
भटकती बेचारी जान का॥
बस विरानो में गूंजती आवाज़ है ये॥
न कोई सिलसिला पहचान का॥

और हाँ..कमबख्त मुहब्बत
बिकती भी है॥
कम से कम दामो में॥
हर एक जगह..विरानो में दुकानों में॥

अरे हाँ...किस्सा बीच में ही छूट गया॥
की मुझे मुहब्बत है।
थोड़ी खुद से भी है...
झूठ नहीं बोलूँगा॥

तो! क्या करें...ज़माना पूछता है,,
और मेरे दिल में जैसे कांच सा टूटता है।

कभी सोंचता हूँ..खरीद लूं..
उस बे इमान ज़मीर को चल के॥
जिनके रास्तों में आजकल॥
नए प्यार के चिराग हैं जलते॥

पर क्या करूँ, कायर हूँ मैं
गुज़रे वक़्त की गलियों में भटका,
एक गरीब गुमनाम शायर हूँ मैं...

मेरी मुहब्बत बेकार है...
बीते कल के खाने की तरह॥
मेहमान जो आते हैं कभी,
तो लौट के जाने की तरह...

मगर मैं जानता हूँ,
इस दौर का सच भी पहचानता हूँ।
मुहब्बत तो बस एक खेल है यहाँ,,
जीत का और हार का॥

आंसूं और आँहो का मतलब
समय नए व्यापार का...

ये युग पाखंडी काल छली है॥
हर चेहरे पे है एक चमकीला पर्दा...
हर दिल एक संकरी तंग गली है...





Sunday, June 13, 2010

तन्हाईयां

सहर क्या है, धूप की चुभन,
भाग दौड़, परेशानियाँ...
रात क्या है, यादों की जलन,
वीरानियाँ,वीरानियाँ।

टूटता हूँ, समेटता हूँ॥
फिर से टूट जाता हूँ,
रात-दिन दौड़ता रहता हूँ,
मगर पीछे छूट जाता हूँ.

ये छूटना तकदीर है,
बेकार हैं, हैरानियाँ॥
ये हारना सबक है...
मेहरबानियाँ,मेहरबानियाँ।

घूमता हूँ, शब्-ओ-सहर,
उम्मीदों के पहनके चीथड़े,
ख्वाबों के फूल बासी हैं,
कोई तितली उनपे क्यों उड़े॥

सुबह के हाथ छोटे हैं, मगर
लम्बी हैं,काली परछाईयां,
हर तरफ भीड़ बेशुमार पर,
तन्हाईयां,तन्हाईयां.....

Thursday, June 10, 2010

a fun poem for all special dozers...

I am dozing...its so much fun...
opening half an eye to look around,
pretend to be awake with bloodshot eyes,
keeping the secret no one ever found.
doze till I jolt my head..and made it spun...
its so much fun.

dropped my phone on floor, it cracked...
broke eleventh mug of coffee this week...
didn't hear a thing when my neighbor got wacked...
spilled water thrice around...
ah! loo is the only place to run...
its so much fun.

my pad make bizarre sounds,
my pen poked my eyes thrice..
but till my boss also snoozes in the corner,
who cares for the price.
till he wakes up and fires the gun,
dozing in office is so much fun..

I am dozing in office...its so much fun.

Tuesday, May 25, 2010

एक ह्रदय है...

एक ह्रदय है आकुल व्याकुल समय की सीमाओं से दूर,

पल में हँसता गाता है फ़िर पल में टूट के होता चूर॥

कितने सपने स्वच्छ मनोरम

सुंदर रंगों से भरपूर,

इस पल दोनों हाथ लुटाता

और अगले पल मौन,मजबूर।

कभी जगत को साथ हंसाये,

कभी बने निष्प्राण,क्रूर,

जब भी घावों को मरहम

देता ख़ुद पाता है एक नासूर।

उसकी पीड़ा कौन सुने अब

अपने आप में सब मजबूर,

रोली चन्दन न बन पाया,

बनने को सक्षम था सिन्दूर,

वही ह्रदय है आकुल व्याकुल, समय की सीमाओं से दूर..

Monday, May 10, 2010

मिट जाना चाहता हूँ.

टुकड़े टुकड़े जोड़ रहा हूँ,
बस एक तेरी तस्वीर बनाना चाहता हूँ.

चिपका पड़ा हूँ सूखी मिटटी सा झील के कगार पे,
तुम टूट के बरसो सावन सा...
घुल के बह जाना चाहता हूँ।

अंजुली भर गर्व था,हथेलियों से रिस गया,
बचा कुछ अभिमान भी था,
जीवन की सड़क पे जूते सा घिस गया।
अब बची है बस वो आस, की तुम शायद समेट लोगी,
सूखे फूल से झरती पंखुडियां...

मै गहन रात्रि में बिन प्रकाश,
खुद दिए सा जलता हूँ.....
तुम फूटो सुबह का सूर्य बनके....
मै बुझ जाना चाहता हूँ।

एक इबारत लिख दो नयी,
चटक रंगों से जीवन के कागज़ पर,
मै उस कागज़ का नीरस, श्वेत विस्तार लिए...
मिट जाना चाहता हूँ॥

टुकड़े टुकड़े जोड़ रहा हूँ,
बस एक तेरी तस्वीर बनाना चाहता हूँ.

Monday, May 3, 2010

अब कहाँ चलें,
अब कहाँ रुकें।
कहाँ वो आशियाँ,
कहाँ वो वादियाँ॥

सब लोग चुप हैं...
सब परेशां,
सब हैरान हैं,
कहाँ कहकशां!

खुद में खोये सभी,
ख़ुदा रूठा हुआ॥
एक डर हर सु,
दिल में बैठा हुआ.

काली आंधियां चले,
तेजाब बरसता॥
कही तसल्ली नहीं,
हर शख्स तरसता॥

किस आबो हवा में,
प्यार लेके चले?...
हर वक़्त,हर जगह॥
कब तक जलें??

चलो कहीं रुक जाएँ,
थक चुके चलके..!
कितने आंसू तेरे मेरे,
रात दिन छलके!!!

Friday, April 23, 2010

मेरे संग ज़रा चलो की बहुत देर हुई,
इन अंधेरों से निकलूँ, कि बहुत देर हुई।

न जाने कौन सा दिन कौन सी रातें हैं ये,
मैंने देखी नहीं सुबह कि बहुत देर हुई।

एक वादे पे बैठा रहा मुद्दतों नादान मैं,
वो वादा भी कब का टूटा,बहुत देर हुई।

कभी हाथ बढाया था,जाने किसकी तरफ,
बढ़के थाम लो तुम्ही, कि बहुत देर हुई।

आँखों में घुलने दो, नर्म ख्वाब रात भर,
अब जीना है मुझे फिर से, बहुत देर हुई.

Wednesday, March 24, 2010

क्या जीवन का सार यही है,
की ये दुखों का झरना है।
क्या यही सच है की सबको
तिल तिल करके मरना है।

बरसो तक, सदियों तक चलकर
उसी राह पे आना है,
जिस रस्ते एक नयी राह पे,
फिर आगे बढ़ जाना है।

ये मन विचार का ब्रह्मपुत्र है,
बांध बना के रुके नहीं,
या जैसे एक सूखी लकड़ी,
टूट जाये पर झुके नहीं।

फिर प्रेम,लोभ और सारे सपने,
इच्छाओं के इतने शूल,
किस सच की चट्टानों से लड़कर,
खंड-खंड मिट गए समूल।

क्या ये सच वह ज्योति है,
जो नयी राह दिखलाती है।
हर विनाश से बचकर लौटे,
इस मानव की थाती है।

अब कौन उत्तर ढूँढेगा इनका,
इन प्रश्नों की काट नहीं है।
जीवन की ये नदी है अविरल,
कहीं द्धीप और घाट नहीं है॥

Saturday, March 20, 2010

वातावरण विपरीत है।
(एक पुरानी कविता की पुनर्रचना-मूल रचना-1996)

कितना कठिन जीवन हुआ,
कितनी सरल है त्रासदी,
धमनियों में राख भर कर,
चली गयी पूरी सदी।

सुरभि घर के आँगनो की,
जाने कब घरों से खो गयी,
कलह कल्कि जागती है,
भाग्य देवी सो गयी।

कर्त्तव्य,लज्जा,कर्म,प्रेम,
सब जुड़े व्यापर में।
बिक रही बेमोल अब,
निष्ठां, शर्म बाज़ार में।

कौन ऊँगली अब उठाये,

अधिपति के नाम से,

धन की चमक बोलती है,

हर जगह आराम से।

ऐ नयी आशा के बीज,

अब भी खिल रहा है, ठीक है,

किन्तु फिर से सोच ले॥

वातावरण विपरीत है।