Tuesday, November 29, 2016

गीत

तुम युग्माें की बात कराे, मैं एकाकी चलता हूँ,
तुम हीं जीवन जीती हाे, मैं ताे केवल पलता हूँ.
चेहरा तेरा चाँद सरीखा, पथ में झड़ते रहते तारे,
मैं भी सूरज जैसा ताे हूँ, किन्तु केवल जलता हूँ.

जाने कैसे तुम जूड़े में रिश्ते बाँध के चलती हाे,
आैर मैं घर या बाहर, बस आँखाें में खलता हूँ.
तुम बसंत की पहली काेंपल, सब राह तकें तेरी,
मैं बरमासी जंगली बूटी, हर माैसम में फलता हूँ.

हर दिन दिखती हाे आैर हर दिन नई लगती हाे,
विस्मित मैं तुम्हें देख, बस आँखाें काे मलता हूँ.
तुमने सुलगा दी प्रेम ज्याेति यूँ मेरे बेकल मन में,
मैं माेम ह्रदय लेके अपना, थाेड़ा थाेड़ा गलता हूँ.

Tuesday, November 15, 2016

बैठी रहती है....

आज दिल में एक वीरानी बैठी रहती है.
भूले किस्से, बात पुरानी बैठी रहती है.
खुशी के गीत सुनता हूँ, भूल जाता हूँ,
पीड़ा की हर एक कहानी बैठी रहती है.

वही मार्ग है प्रेम का, कांटाें तीराें वाला,
क्यूँ कांटाें पे टिकी जवानी बैठी रहती है?
जहाँ हाथ छाेड़ गये कितने, कितनी बार,
उसी जगह क्यूँ एक दिवानी बैठी रहती है?

इसी जगह था घर वाे, जल के खा़क़ हुआ,
लाशाें की एक गंध पुरानी बैठी रहती है,
ख़त्म हुए जल के जहाँ राैशन करने वाले,
अब साये में धूप सुहानी बैठी रहती है.

क्यूँ मीठी बाेली खाे दी सबने, याद नहीं,
हर जिह्वा पे कड़वी बानी बैठी रहती है.
नर्म बिस्तर पर रात रात जागे है दुनियाँ,
बरामदाें में नीन्द सुहानी बैठी रहती है.

Thursday, November 3, 2016

क्यूँ राेती है शब

क्यूँ राेती है शब ये, इसे चुप कराओ,
इसकाे बुलाके सुबह ताे दिखाआे,
ये ख़ुद हीं ख़ामाेश हाे जाएगी फिर,
आंसू पाेंछ डालेगी, साे जाएगी फिर.

ये सहर के ख़ाैफ़ से डरता ज़माना,
ये दफ़्तर से घर फ़कत आना-जाना,
बीमार शक्लाें पे पाेते हुए ये लतीफ़े,
मतलब के रिश्ताें के पढ़ते क़सीदे.

ये सड़क पे ज़इफ़ाें काे गाली सुनाते,
औ दुपहर काे हाेटलाें में बाेटी चबाते,
नशे में कहीं दिन-दहाड़े फिसलना,
बे-स्वाद बिस्तर पे करवट बदलना.

ये ठगी झूठ की बनती मिसालें,
दिन-ब-दिन माेटी हुई सख़्त खालें,
बटुए में कैद ये जिस्माें की धनक,
धाेके पे ताली, औ शफ़कत ग़लत.

अय्याशियाें में बीमार शतरंजी वज़ीर,
ये चिल्लम के धुँए में खाेए फ़कीर,
मुहब्बत की बाेली हरेक ग़ाम लगती,
मुफ्लिसी फुटपाथाें पे सर पटकती.

कहाँ छुप रही शब उसे बुलाओ,
ये राैशन दिनाें के मंज़र दिखाओ,
उसकाे किस्मत पे अपनी हाेगा ग़ुमाँ,
जब वाे देखेगी सूरज का काला धुआँ.

ग़ज़ल

न माैत आती है, न जिया जाए है,
भूल पाऊँ, न नाम लिया जाए है.

मशहूरियत का गु़माँ हाेता है अब,
ज्यूँ ज्यूँ काेई बदनाम किया जाए है.

हाय तिश्नगी और आब मय्यसर नहीं,
अब न ज़हर, न जाम पिया जाए है.

वाे थक गया दाे चार मेरी बात सुन,
जाे बरसाें मुझे इल्ज़ाम दिया जाए है.

समझेगा कब तू मुफ़लिसी के मायने,
कि हर राेज़ फटी जेब सिया जाए है?