Saturday, July 24, 2010

थोडा जीवन...

अधूरा सा है सब कुछ...
कोई गहराता अँधेरा हूँ मैं।
दौड़ रहे हैं सबलोग...
जाने क्यूँ ठहरा हूँ मैं॥

क्यूँ जो एक टीस सी है,
दिल से हटती ही नहीं...
पीड़ा की अमरबेल है कोई,
उम्र घटती ही नहीं॥

आंसूं खारे पानी से...
ज्यादा कुछ लगते नहीं,
दिल नमक का दलदल है...
फूल यहाँ उगते नहीं॥

तनहाइयों के दिन बरस,
मिल मिल के पत्थर बन गए...
सपनो के कोरे कागज़ पे,
पसीने रिस के अक्षर बन गए॥

बस एक तलाश है की...
एक हाथ बढ़ के थाम ले,
आंसू आँखों से पोंछ ले,
और शायद मेरा नाम ले...

वैसे महंगा लगता है,
पर सौदा सच में सस्ता है...
इस "शायद" और "सपने" के बीच,
थोडा "जीवन" तो बसता है...

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