Wednesday, January 6, 2016

दिलासे...

मैं जानता हूँ वो सारे लफ्ज़
दिलासों वाले,
सारे मशहूर नुख्ते और सलाह
लोग देते रहते हैं हर वक़्त मुझे,
ये सब, और कुछ न कुछ नया.
 "अरे, क्यों उदास हो?"
 "क्या हुआ है तुम्हे?"
 "अरे यार, खुश रहा करो..."
 "सब ठीक तो हैं...?"
 "सब अच्छा होगा... देखना"
और हाँ!!
 "भगवान पर भरोसा रखो..."

रखा था मैंने,
भरोसा और हिम्मत,
ख़ुशी और उम्मीद बचाकर
किसी तरह बरसों तलक,
अचार की तरह,
दिल के बंद मर्तबानों में,
नमी और हवा से दूर.

मगर अब देखता हूँ,
जाने कैसे, उन सारी उम्मीदों को,
सीलन लग गयी,
हिम्मत की लकड़ियाँ भी,
दीमक खा चुके हैं.
खोखली बज रही हैं,
ख़ुशी की वो दीवारे भी,
जो बड़ी कोशिशो से, खड़ी की थी.

पता नहीं ये कैसे हुआ?
कब भर गयी उन मर्तबानों में,
इतनी नमी, रेत, गर्द और नमक,
जो सब गला चूका है अब.

बस एक चीज़ अब तक बची है,
साबुत और मज़बूत,
मुंह चिढ़ाती है, सब नमक के सैलाबों को,
सलाह और मश्विरों को.
वो सब हौसले की गप्पो पर,
और प्रार्थना की खुशफहमी पर,
बेशर्मी से हंसती है.

और कहती है,
 "कमबख्त कहीं का...."
 "मैं बस एक ही तेरी सखी यहाँ"
 "अब तो दामन थाम मेरा..."

वो है मेरी दोस्त, उदासी,
कभी नहीं बदली है वो....!!