Sunday, July 10, 2011

किस रास्ते...

किस रास्ते चला था,
इस रास्ते चला था,
जो कभी रुका नहीं,
उस रास्ते चला था।

उस रास्ते में मोड़ थे,
कुछ कंकड़ और रोड़ियाँ
मेरे हाथ पंख थे पर,
पांव में थी बेड़ियां।

बेड़ियाँ भारी बहुत थी,
किन्तु मैं चलता गया।
प्रारब्ध तपता सूर्य था,
मैं मोम सा गलता गया।

मोम से आदर्श मेरे,
स्वार्थ सने स्वेद कण,
चला केवल अपने लिए,
जलता हुआ हरेक क्षण।

क्षण भर को सोचा नहीं,
कुछ है अहम् के पार भी,
सब कुछ बेचा ऊँचे दाम,
दान भी, व्यापार भी।

इस व्यापार में थका,
एक दिन पथ में गिरा,
कोई नहीं था पास मेरे,
न डोर न कोई सिरा..

सिरा मिला ही नहीं,
उस अबूझी चीज़ का।
फल सभी चखे मगर,
अपमान किया बीज का..

बीज वो जो दाता था,
मेरे उलट..सजीव था,
मैं वासना में लिप्त तो,
वो मूल्यों की नीव था।

नीव में जो बीज है वो,
मेरी अपनी आवाज़ है,
वो रूह से आती है,
निष्ठुर है, आजाद है॥

आज़ाद यूँ...की कहती है,
तू सिर्फ चला अपने लिए,
अब मौन रहके आंसू पी,
मत बोल जग कैसे जिए!

जो उठाये इतने साल,
वो उठाता चल तू बेड़ियाँ,
तेरे लिए छाया नहीं...
बस रास्ते और रोड़ियाँ..