Tuesday, December 29, 2009

एक पुरानी कविता की पुनर्रचना। मूल रचना-1994

मैं रात का पथिक हूँ॥
मुझमे गति है,वेग है, ऊष्मा भी है,आवेग है।
शांत मुख पर छन्द हैं, उल्लास के पथ बंद हैं,
मै भाग्य का कुछ हीन सा, टूटे स्वरों के बीन सा,
पर मार्ग पर अडिग हूँ।
मैं रात का पथिक हूँ॥

मुझमे नही सब शक्तियां, वो प्रेम और आसक्तियां,
मैं शून्य का प्रलाप हूँ, मैं अपना बाधक आप हूँ,

बिछरा हुआ हूँ काल से,एक लम्बे अंतराल से,

दिग्भ्रांत भी तनिक हूँ,

मै रात का पथिक हूँ॥

वो चाँद भी है नित्य सा, स्वीकारता आतिथ्य सा,

मार्ग पर वही चांदनी, हवा में परिचित रागिनी,

चलता हूँ मै पग बढ़ा, विचित्र लक्ष्यों पर खड़ा,

बस निम्न से अधिक हूँ,

मै रात का पथिक हूँ॥