Monday, March 23, 2020

प्रकृति

कभी सुनी है तुमनें, सन्नाटे की सारंगी?
कभी सुना क्या, झरनों के आशिर्वाद को,
कभी सुना गर्मियों की दुपहर,
पीपल की धौंकती साँसें?
कभी पहचान पाए क्या,
गुड़हल के पौधे पे खिलती पहले फूल की किलकारी?
तुम चले बहुत, तुमनें देखा बहुत,
तुमनें जीता बहुत, तुमनें पाया बहुत.
पर तुमनें सुना नहीं कभी, प्रक्रृति के वो स्वर,
जो तुम्हें बुलाती रही,
अकेली रह गई बूढ़ी माँ की तरह.
अगर अब भी चाहो, तो मुड़ सकते हो,
कुछ समय को.
नहीं तो थोड़ा ठिठक कर हीं सुन लो कभी.
वो बूढ़ी वैसे हीं बैठी है सदियों से,
तुम्हें पुकारती.