Wednesday, March 24, 2010

क्या जीवन का सार यही है,
की ये दुखों का झरना है।
क्या यही सच है की सबको
तिल तिल करके मरना है।

बरसो तक, सदियों तक चलकर
उसी राह पे आना है,
जिस रस्ते एक नयी राह पे,
फिर आगे बढ़ जाना है।

ये मन विचार का ब्रह्मपुत्र है,
बांध बना के रुके नहीं,
या जैसे एक सूखी लकड़ी,
टूट जाये पर झुके नहीं।

फिर प्रेम,लोभ और सारे सपने,
इच्छाओं के इतने शूल,
किस सच की चट्टानों से लड़कर,
खंड-खंड मिट गए समूल।

क्या ये सच वह ज्योति है,
जो नयी राह दिखलाती है।
हर विनाश से बचकर लौटे,
इस मानव की थाती है।

अब कौन उत्तर ढूँढेगा इनका,
इन प्रश्नों की काट नहीं है।
जीवन की ये नदी है अविरल,
कहीं द्धीप और घाट नहीं है॥

No comments:

Post a Comment