Tuesday, December 6, 2011

मत कहो,


कुछ मत कहो,


न शब्द चले न संगीत,


न कोई साज़ बजे न होंठ हिलें।


उठा लो बढ़ के


मेरे सामने की मेज़ से,


तश्तरियां, बोतलें गिलास,


ज़रा फिर से साफ़ करो


वो गर्द भरी कुर्सियां,


जो सजा राखी है मैंने बरसों से,


और जिनपे आज तलक सिर्फ...


तन्हाई बैठती है॥


इस चमकती सफ़ेद रौशनी को,


बुझा दो अब...


क्यूंकि ये मेरे चेहरे की बेबसी,


साफ़ साफ़ दिखाती है.


रात की इस गहराती ख़ामोशी में,


इस मध्हम ठंडी हवा पे चल के


कुछ आवाजें आती हैं अब भी...उफ़...


ज़रा इन खिडकियों को बंद कर दो,


की ये ख़ामोशी न टूटने पाए॥


अब ज़रा बनावो फिर से एक जाम,


और मेरी खातिर ,


ये अधखुले दरवाज़े भी बंद कर दो,


कल तक के लिए॥


मेरी तन्हाई में बहने दो,


जाम और अश्को के नमकीन नगमे,


अभी तो रात बाकी है...


कहाँ अभी किसी को मेरी याद है,


कोई नहीं ढूँढने आएगा मुझे यहाँ,


मैं खुद को खो चूका हूँ जहाँ..


Sunday, December 4, 2011

इंसान कैसे कैसे...

धूल में अटा हुआ, स्वेद में सना हुआ,


धर्म पे अड़ा हुआ, भूख से तना हुआ,


इंसान कैसे कैसे दुनिया में रवां हैं,


कोई धिस के खाक तो कोई आइना हुआ॥



ज़ख्म सबके ज़ख्म, मर्ज़ सबके मर्ज़,


सबकी अपनी ख्वाहिशें, सबके अपने फ़र्ज़,


शर्म से कोई जिए कोई शर्म बेचता,


दोस्ती किसी को हक लगे तो किसी को क़र्ज़,


इंसान कैसे कैसे दुनिया में रवां हैं,


गीत गाते एक से, पर अपने अपने तर्ज़॥



भ्रष्ट सत्य, झूठ प्रीत, भ्रम दिलों का मेल,


जान जाये एक की तो दुसरे का खेल,


कोई कुर्सी से बंधा, कोई सब कुछ त्याग दे,


छल में कोई सफल, कोई सच कहे तो जेल,


इंसान कैसे कैसे दुनिया में रवां हैं,


कोई तार पर बैठा किसी की तनी गुलेल।



मिटटी बनती चाहतें, ज़रूरतें,परेशानियाँ,


शोर कहीं बहरा करे, कहीं मीलों वीरानियाँ,


ज़ज्बात लेके चलने वाले मूर्ख बन जाते,


कुर्बानियां हंसी बनी, इश्क सब कहानियां,


इंसान कैसे कैसे दुनिया में रवां हैं,


दौड़ते हांफते बुढ़ापे, रेंगती जवानियाँ॥



हसरतों, नाकामियों के चरखे में बुना हुआ,


भूल जाता हर सबक, लाखों दफे सुना हुआ,


दरख्तों से खड़े लोग जिनके पत्ते झड चुके,


ठूंठ है बचा मगर बुरी तरह घुना हुआ,


इंसान कैसे कैसे दुनिया में रवां हैं,


कोई घिस के खाक तो कोई आइना हुआ॥

Thursday, December 1, 2011

कुछ रात है कुछ दिन सा, कुछ पता नहीं चलता,
मैं कितनी देर तक सोया हूँ, कुछ पता नहीं चलता।

लकीरें भीगी सी लगती हैं माथे पर शिकन तो है,
वजह बस धूप या गुस्सा है, कुछ पता नहीं चलता।

जितनी दफे वो देखती है सब्र जलता है मेरा,
मुहब्बत है की ये हवस है, कुछ पता नहीं चलता।

कोशिशे सब मायूस हैं बस टूटती और हारती,
कम मेहनत या किस्मत है फ़क़त, कुछ पता नहीं चलता।

वही काले काले रस्ते, वही सब पीली उजली कोठिया,
कब रास्ता भटक गया, कुछ पता नहीं चलता।

इस आग ने सब नक्श और नंबर जला के रख दिए,
यहाँ कौन सा था घर मेरा, कुछ पता नहीं चलता।

आओ बैठो जाम लो और दर्द अपने चूम लो,
कब बेबसी हंसा दे कुछ पता नहीं चलता।

सड़कों पे हर शक्ल अब प्यारी सी दिखती है,
कौन मुसाफिर है कौन बटमार कुछ पता नहीं चलता।

मुझे याद है मेरी पीठ पे वो चाकू की चुभन बस,
पर वो हाथ था किस दोस्त का, कुछ पता नहीं चलता।

अगर जो देर से आना हो तो कुछ नक़्शे साथ बाँध लो,
शहर जो साल पर लौटो तो कुछ पता नहीं चलता.


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