(एक पुरानी कविता की पुनर्रचना-मूल रचना-1996)
कितना कठिन जीवन हुआ,
कितनी सरल है त्रासदी,
धमनियों में राख भर कर,
चली गयी पूरी सदी।
सुरभि घर के आँगनो की,
जाने कब घरों से खो गयी,
कलह कल्कि जागती है,
भाग्य देवी सो गयी।
कर्त्तव्य,लज्जा,कर्म,प्रेम,
सब जुड़े व्यापर में।
बिक रही बेमोल अब,
निष्ठां, शर्म बाज़ार में।
कौन ऊँगली अब उठाये,
अधिपति के नाम से,
धन की चमक बोलती है,
हर जगह आराम से।
ऐ नयी आशा के बीज,
अब भी खिल रहा है, ठीक है,
किन्तु फिर से सोच ले॥
वातावरण विपरीत है।
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