Wednesday, March 24, 2010

क्या जीवन का सार यही है,
की ये दुखों का झरना है।
क्या यही सच है की सबको
तिल तिल करके मरना है।

बरसो तक, सदियों तक चलकर
उसी राह पे आना है,
जिस रस्ते एक नयी राह पे,
फिर आगे बढ़ जाना है।

ये मन विचार का ब्रह्मपुत्र है,
बांध बना के रुके नहीं,
या जैसे एक सूखी लकड़ी,
टूट जाये पर झुके नहीं।

फिर प्रेम,लोभ और सारे सपने,
इच्छाओं के इतने शूल,
किस सच की चट्टानों से लड़कर,
खंड-खंड मिट गए समूल।

क्या ये सच वह ज्योति है,
जो नयी राह दिखलाती है।
हर विनाश से बचकर लौटे,
इस मानव की थाती है।

अब कौन उत्तर ढूँढेगा इनका,
इन प्रश्नों की काट नहीं है।
जीवन की ये नदी है अविरल,
कहीं द्धीप और घाट नहीं है॥

Saturday, March 20, 2010

वातावरण विपरीत है।
(एक पुरानी कविता की पुनर्रचना-मूल रचना-1996)

कितना कठिन जीवन हुआ,
कितनी सरल है त्रासदी,
धमनियों में राख भर कर,
चली गयी पूरी सदी।

सुरभि घर के आँगनो की,
जाने कब घरों से खो गयी,
कलह कल्कि जागती है,
भाग्य देवी सो गयी।

कर्त्तव्य,लज्जा,कर्म,प्रेम,
सब जुड़े व्यापर में।
बिक रही बेमोल अब,
निष्ठां, शर्म बाज़ार में।

कौन ऊँगली अब उठाये,

अधिपति के नाम से,

धन की चमक बोलती है,

हर जगह आराम से।

ऐ नयी आशा के बीज,

अब भी खिल रहा है, ठीक है,

किन्तु फिर से सोच ले॥

वातावरण विपरीत है।