Tuesday, December 29, 2009

एक पुरानी कविता की पुनर्रचना। मूल रचना-1994

मैं रात का पथिक हूँ॥
मुझमे गति है,वेग है, ऊष्मा भी है,आवेग है।
शांत मुख पर छन्द हैं, उल्लास के पथ बंद हैं,
मै भाग्य का कुछ हीन सा, टूटे स्वरों के बीन सा,
पर मार्ग पर अडिग हूँ।
मैं रात का पथिक हूँ॥

मुझमे नही सब शक्तियां, वो प्रेम और आसक्तियां,
मैं शून्य का प्रलाप हूँ, मैं अपना बाधक आप हूँ,

बिछरा हुआ हूँ काल से,एक लम्बे अंतराल से,

दिग्भ्रांत भी तनिक हूँ,

मै रात का पथिक हूँ॥

वो चाँद भी है नित्य सा, स्वीकारता आतिथ्य सा,

मार्ग पर वही चांदनी, हवा में परिचित रागिनी,

चलता हूँ मै पग बढ़ा, विचित्र लक्ष्यों पर खड़ा,

बस निम्न से अधिक हूँ,

मै रात का पथिक हूँ॥

Saturday, October 24, 2009

अब कौन किसका हमकदम औ' साया है।
वो मेरा हिस्सा था कल तलक, अब पराया है।

ज़रा देर मुझे इस फुटपाथ पे गिर जाने दे..
मुझे हवा ने बरसों तलक उड़ाया है।

आँखे भीगी भीगी लग रही हैं सुबह से,
किसी ख्वाब ने किस कदर सताया है।

फलक की ओर से एक रौशनी सी आई है,
अब चलूँ, किसी ने प्यार से बुलाया है.

Saturday, July 11, 2009

facts about the way i look..

on persistant badgering by some of my buddies about reason for my lean and thin frame...i was forced to reply them with some facts from my past...in the following way...take a look...



many moons ago...i was plump and obese
but i didnt feel bad at all, i was at ease...
then one day i saw a man;frail and thin..
he looked hungry, i was having chicken with JIN..
he was on his feet of clay...i was on the moon..
but i realised i was shivering..in the heat of June...
i felt like a pain on earth...hogging day and night...
not caring for any one..out of my sight..
i decided to be lean...taking frugal food..
i felt terrible first but then...very very good...
i took a pledge...never to be plump again..
that pledge is going on...through sickness and pain..

Saturday, July 4, 2009

एक कविता बारिश के नाम

ये सावन, ये बादल, ये बिजली, ये पानी।
वही सदियों से चलती कहानी !!!
ये बारिश, भीगी हवा, मिटटी की खुशबु॥
लोगों पे अब भी करती है जादू॥
मगर कितने घरो में जीवन है भारी,
बस जीते चले जाने की लाचारी॥
वहां दिलों में है एक बारिश अलग सी।
इच्छाओं में उलझी, सूनी सुलगती !!
यही सावन वहां लाता है बस खुमारी,
और बदबू, फिसलन, कीचड़, बीमारी॥
कहीं का सावन तो हरदम सुनहरा॥
कहीं एक पतझड़ का मौसम है ठहरा..

Monday, June 29, 2009

बाहर से मुझे पत्थर -ओ -परबत की तरह देख॥

भीतर से मुझे फूटते दरिया की तरह मिल,

जो अलग भी हों ज़िन्दगी के रास्ते तो क्या!

सागर में गिरती मीठी नदिया की तरह मिल।

पतझर की रुत में उंघते पलाश की तरह,

कहीं दिखू तो मुझे लरजते बादल की तरह मिल।

इन मतलबी रिश्तों के कांटो के जंगल में,

तू खुशबु बिखेरते हुए संदल की तरह मिल॥

ये कशमकश में रोज़ की पिसता हुआ शहर,

इस शहर को दिल से तू भले नश्तर की तरह मिल,

मगर चुभने की वो अदा किसी कोने में दफन कर,

मुझे मोम से बने हुए खंजर की तरह मिल॥

तपते हुए सूरज की तरह जो रहूँ कभी,

तू आगोश में ले मुझको एक साहिल की तरह मिल,

किसी रोज़ गर ये ज़िन्दगी ज़ख्म बन जाए,

सिर्फ़ तुझको इजाजत है तू कातिल की तरह मिल.



Tuesday, June 23, 2009

जहाँ भर के बिखरे हुए हालात की बातें करें,

हम दिन को बैठे गुलिस्तां में रात की बातें करें।

पल में जाने क्या हुआ, वो किस बात पे खफा हुए,

फ़िर मिले कभी तो उस बात की बातें करे।

हालात तो हैं सुर्ख, ज़र्द और ग़मगीन भी,

पर ख्वाब तो आजाद हैं,आ ख्वाब की बातें करे.

Wednesday, June 3, 2009

क्यूँ मातम करो मेरा,तुम खुश हो सही है मैं जो रंग ज़माने का न समझा,ये रंग वही है। गुजरी हुई ज़िन्दगी के हादसों से,क्यों आने वाला कल लहुलुहान हो! यही तरीका सही है की तुम बढे चलो और पहुँचो जहाँ फ़िर ज़िन्दगी जवान हो। थोडा ग़म भी हो तुम्हे तो कोई बात नहीं, थोड़े ग़म से खूबसूरती और खिलती है॥ मेंहदी का रंग सुर्ख लाल होता है, जब हीना को पत्थर की चोट मिलती है। तो इन कथ्थई आंखों में फ़िर से काजल भरो... और बालों में मोगरे की महकती लड़ियाँ डालो॥ होटों पे लाली भरो,और मलमल का रंगीन दुपट्टा डालो, चेहरे पे नया नूर और नजरो में नए सपने पालो। हजारों दिल तुम्हारी राहों में अब भी धड़कते हैं॥ चल के ज़रा उन लडखडाते कदमो को संभालो॥ मेरा क्या है!मेरी भी सांसे तो आख़िर चलती ही रहेंगी॥ और फ़िर कौन यहाँ किसकी खातिर जान लुटा देता है? हाँ!कुछ रिश्ते ज़रूर रेत के घरौंदे से होते हैं॥ जिन्हें हालातो का समंदर मिटा देता है। जो एक मैं नही तो क्या हुआ,तुम खुश हो सही है॥ मैं जो रंग ज़माने का न समझा,ये रंग वही है...!!

Sunday, May 24, 2009

कहीं शाखों पे कुछ गुल मेहेरबा हुए हैं,
और कुछ तेरी जुल्फों में आके छुपे हैं॥
तेरी आंखों से कल जो बादल उडे थे॥
वो पलकों पे आके अचानक रुके हैं।
मैं उठ गया हूँ मगर अभी महफिलें जंवा हैं।
वही जाम वही सुरूर वही मस्तियाँ रवां हैं॥
कही कोई ग़मगीन सूरत नही है....
किसी को भी मेरी ज़रूरत नहीं है॥

सड़कें रोशन हैं,दुकाने जगमगा रहीं हैं।
चौराहों पे जवानियाँ नए गीत गा रही हैं॥
मुहब्बत के सूखे फूल से वायदों की तितलियाँ॥
एक-एक करके उडी जा रहीं हैं॥
सादगी सज़ा है,यकीन बदगुमानी है॥
सिमट गई किताबों में अब दोस्ती कहानी है॥
यहाँ पत्थर ही पत्थर हैं,मूरत नहीं है॥
किसी को भी मेरी ज़रूरत नहीं है...