Thursday, November 3, 2016

क्यूँ राेती है शब

क्यूँ राेती है शब ये, इसे चुप कराओ,
इसकाे बुलाके सुबह ताे दिखाआे,
ये ख़ुद हीं ख़ामाेश हाे जाएगी फिर,
आंसू पाेंछ डालेगी, साे जाएगी फिर.

ये सहर के ख़ाैफ़ से डरता ज़माना,
ये दफ़्तर से घर फ़कत आना-जाना,
बीमार शक्लाें पे पाेते हुए ये लतीफ़े,
मतलब के रिश्ताें के पढ़ते क़सीदे.

ये सड़क पे ज़इफ़ाें काे गाली सुनाते,
औ दुपहर काे हाेटलाें में बाेटी चबाते,
नशे में कहीं दिन-दहाड़े फिसलना,
बे-स्वाद बिस्तर पे करवट बदलना.

ये ठगी झूठ की बनती मिसालें,
दिन-ब-दिन माेटी हुई सख़्त खालें,
बटुए में कैद ये जिस्माें की धनक,
धाेके पे ताली, औ शफ़कत ग़लत.

अय्याशियाें में बीमार शतरंजी वज़ीर,
ये चिल्लम के धुँए में खाेए फ़कीर,
मुहब्बत की बाेली हरेक ग़ाम लगती,
मुफ्लिसी फुटपाथाें पे सर पटकती.

कहाँ छुप रही शब उसे बुलाओ,
ये राैशन दिनाें के मंज़र दिखाओ,
उसकाे किस्मत पे अपनी हाेगा ग़ुमाँ,
जब वाे देखेगी सूरज का काला धुआँ.

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