Sunday, May 6, 2018

ग़ज़ल

काग़ज़ काग़ज़, लफ्ज़ लफ्ज़ ग़म बांट देता हूं, 
हर ग़ज़ल में तेरा नाम लिखकर काट देता हूं. 

तुम परीशां जब भी हो मुझसे बातें कर लेना, 
मैं तो लफ्ज़ों से दिलों की खाई पाट देता हूं. 

बच्चे सा है ग़म ये चंचल, इक जगह न बैठेगा, 
कभी दुलारता हूं इसको, कभी मैं डांट देता हूं. 

मेरे घर आ जाना जब आँखों में बादल उतरें,
मैं नदिया बन बहती आँखों को घाट देता हूं.


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