Tuesday, August 23, 2016

ग़ज़ल


हर सुबह बे-नियाज़ और शाम सोगवार,
हयात बे-ज़ायका, बीते कल का अख़बार.

इश्क में बाज़ार और बाज़ार में ग़ुरबत,
मिला हुस्न-ओ-जमाल पाया रोज़गार.

सब का दर्द अपना, ख़ुद का ग़म गुनाह,
क्या-क्या सिखा गए बे-अमली बुज़ुर्गवार.

बेचतें हैं ईल्म आजकल ऊँचे दाम पर,
पुरानें सफ्हात वही, बस ज़िल्द शानदार.

ऊँची नौकरी बेसाख़्ता मज़दूरी बन गई,
 को दिन आज़ादी, को दिन ईतवार.

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