हर सुबह बे-नियाज़ और शाम सोगवार,
हयात बे-ज़ायका, बीते कल का अख़बार.
इश्क में बाज़ार और बाज़ार में ग़ुरबत,
न मिला हुस्न-ओ-जमाल न पाया रोज़गार.
सब का दर्द अपना, ख़ुद का ग़म गुनाह,
क्या-क्या सिखा गए बे-अमली बुज़ुर्गवार.
बेचतें हैं ईल्म आजकल ऊँचे दाम पर,
पुरानें सफ्हात वही, बस ज़िल्द शानदार.
ऊँची नौकरी बेसाख़्ता मज़दूरी बन गई,
न कोई दिन आज़ादी, न कोई दिन ईतवार.
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