सदाओं के उस पार कोई छूट गया है,
और आवाज़ का हर पुल भी टूट गया है.
मानूस हुआ दिल जिसपे वो तिलिस्म था,
छुआ तलक नहीं मगर सब लूट गया है.
ज़ख़्म-ए-हिज़्र में चार रातें बेकली की थीं,
फ़िर वो ज़ख़्म पका और अब फूट गया है.
कौस-ओ-कज़ा पे एक बैरूनी सी रंगत है,
मेरे आसमाँ से आजकल वो रूठ गया है.
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