Saturday, April 30, 2011

लानत है...

चमकती धूप अप्रैल की,
आँखों में गोंद जैसी लगती है॥
मद्धम हवा पार्क के पीपल को छेड़ती,
मीठी सी एक हरारत भरती है॥
कहाँ हैं मेरे पास लेकिन नींद,
कहाँ है आराम के वो बीते पल,
बस टीवी ... और
इतवार का रंगीन अखबार,
फिर ज़िन्दगी ख़ुद को बोतलों में ढूंढती है॥
कहाँ वक़्त है की मैं किसी के आंसू पोछूं
कहाँ वक़्त है किसी के दर्द बांटने का,
होंगे हज़ार दुःख और भी लोगों के पास,
मैं तो बंधा पड़ा हूँ,
दम नहीं अब खुद के फंदे काटने का॥
जलती रहे दुनिया हज़ार फसादों में,
चाहे रोटी के ग़म में लोग ज़हर पीते रहें,
मुझे तो बस मुबारक है मेरे दिल के रोग,
हम बेबसी में शराब पीते रहें,
तुने इश्क में दिए जो ज़ख्म जीते रहें॥
कितना कुछ है करने को,
कितने दर्द हैं मरने को...
मगर एक ज़रा से दर्द में कैसी मेरी हालत है,
लानत है...लानत है..

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