कहो..आकर कहो...
थोडा और करीब आकर कहो,
मुस्कुराते हुए...
दांतों को भींचकर निचले होटों से...
शरमाते हुए कहो॥
कहो खूबसूरत, मद्धम सी...
खनकती हुई आवाज़ में...
जैसे धीमे धीमे सितार बजे...
कहो लफ्जों को गीत बनाकर,
पिरोकर किसी साज़ में॥
मैं ठहरा हुआ हूँ...
और..इंतज़ार में डरा हुआ हूँ।
जानता हूँ...उन होटों की हरकत...
जो कहना चाहती है....
पहचानता हूँ॥
इसीलिए शायद
इस रूखे इंतज़ार से...
ऊब रहा हूँ....और
एक बार फिर खारे पानी के...
एक जाने पहचाने दरिया में...
डूब रहा हूँ...
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