Monday, February 29, 2016

ख़ामोशियाँ

चली जाती है दुल्हन सी रात...
रफ़्तार में ख़म एक डाले हुए,
मसले फूल चिपकाये दामन से,
ढलका आँचल संभाले हुए

क्या ज़िन्दगी है...वाह!!
रात है, शराब भी और तन्हाई,
फ़िक्र ज़माने की भी नहीं,
न ही अहसास-ए-रुसवाई।
 
सब हासिल है तो फिर क्यूँ ...दो पल का सुकून एक ख़्वाब है?
क्यूँ जिस्मो के करवट लेते हुए...
दिल में उठती एक आग है. 

कभी नयी दुल्हन सी शब,
मुझे देखकर के हंसती है,
कभी ये काली सन्नाटी रात,
नागिन बनके डसती है.

फिर भी कहीं कुछ ज़िंदा है,
जो बार - बार दुहराता है,
तू कल के ग़म आज न पाल,
जो आना है, वो आता है.

कौन जाने अगले पल का सच,
ये जिस्म कल रहे न रहे,
ये रूह ग़म के भंवर में गिरे,
और गहराइयाँ सहे न सहे.

अभी तो निकाल दिल से,
चल निकाल सब मायूसियां,
ये रात जी ले,गुनगुना ले कुछ,
कल तो फिर वही, ख़ामोशियाँ।  

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