Thursday, November 26, 2015

ये वक़्त.....

आँखें तेरी क्यों बुझी सी हैं आजकल?
वो जो हज़ार चिराग करती थी रोशन,
क्यों दिखती है आज दुनिआ भर की थकन, ऊब-
उन पेशानियों पर जिन्हे ख़ुशी कभी खुद चूमती थी?

तेरी हथेलियों को क्या हुआ है?
क्यों ये खुरदरी सी हो गयी है?
कभी इनमे आइने  सी चमक थी,
जिनमे मेरा अक्स दीखता था.

और तेरे होंठ क्यों सूखे, पीले, बेजान से हैं?
इनकी सुर्खी तो शर्मा देती थी फूलो को भी.

ये तुझे क्या हुआ है,
ये मुझे क्या हुआ है,
मैं भी टूटे पत्ते सा क्यों हूँ?

मैं तब भी चाहता था तुझे, और
आज भी तू मेरी ही है.,

मगर वक़्त किसी का सगा नहीं,
किसी से उसको प्यार नहीं,
हमें ये वक़्त मिटाने आया है,
ये प्यार चुराने आया है,

यही वक़्त हमारा रक़ीब है बस,
कोई और कुसूरवार नहीं...

ये वक़्त हमारे प्यार से,
हमारे सामने ही खेलेगा
ये तुझ पे, मुझ पे हँसता है,
ये जान हमारी ले लेगा। ...
 

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