Thursday, December 1, 2011

कुछ रात है कुछ दिन सा, कुछ पता नहीं चलता,
मैं कितनी देर तक सोया हूँ, कुछ पता नहीं चलता।

लकीरें भीगी सी लगती हैं माथे पर शिकन तो है,
वजह बस धूप या गुस्सा है, कुछ पता नहीं चलता।

जितनी दफे वो देखती है सब्र जलता है मेरा,
मुहब्बत है की ये हवस है, कुछ पता नहीं चलता।

कोशिशे सब मायूस हैं बस टूटती और हारती,
कम मेहनत या किस्मत है फ़क़त, कुछ पता नहीं चलता।

वही काले काले रस्ते, वही सब पीली उजली कोठिया,
कब रास्ता भटक गया, कुछ पता नहीं चलता।

इस आग ने सब नक्श और नंबर जला के रख दिए,
यहाँ कौन सा था घर मेरा, कुछ पता नहीं चलता।

आओ बैठो जाम लो और दर्द अपने चूम लो,
कब बेबसी हंसा दे कुछ पता नहीं चलता।

सड़कों पे हर शक्ल अब प्यारी सी दिखती है,
कौन मुसाफिर है कौन बटमार कुछ पता नहीं चलता।

मुझे याद है मेरी पीठ पे वो चाकू की चुभन बस,
पर वो हाथ था किस दोस्त का, कुछ पता नहीं चलता।

अगर जो देर से आना हो तो कुछ नक़्शे साथ बाँध लो,
शहर जो साल पर लौटो तो कुछ पता नहीं चलता.


d

No comments:

Post a Comment