Monday, March 23, 2020

प्रकृति

कभी सुनी है तुमनें, सन्नाटे की सारंगी?
कभी सुना क्या, झरनों के आशिर्वाद को,
कभी सुना गर्मियों की दुपहर,
पीपल की धौंकती साँसें?
कभी पहचान पाए क्या,
गुड़हल के पौधे पे खिलती पहले फूल की किलकारी?
तुम चले बहुत, तुमनें देखा बहुत,
तुमनें जीता बहुत, तुमनें पाया बहुत.
पर तुमनें सुना नहीं कभी, प्रक्रृति के वो स्वर,
जो तुम्हें बुलाती रही,
अकेली रह गई बूढ़ी माँ की तरह.
अगर अब भी चाहो, तो मुड़ सकते हो,
कुछ समय को.
नहीं तो थोड़ा ठिठक कर हीं सुन लो कभी.
वो बूढ़ी वैसे हीं बैठी है सदियों से,
तुम्हें पुकारती.

Monday, February 4, 2019

गीत


मेरे घर सजी महफ़िल है,
तुम सकोगी क्या?
मैं जो तराना बोलूंगा,
तुम गा सकोगी क्या?

तुमनें जिसको चाहा,
उसे तुमने पा लिया.
जो तुम्हारा नाहुआ,
उसेपा सकोगी क्या?

एक हुस्न है तुम्हारा,
एक हुस्न ख़ुदाई है.
बादल बनआसमां पे
तुम छा सकोगीक्या?

हमदर्दी और बात है,
हम कदमी कुछ और,
मेरे संग सूखीरोटियाँ
तुम खासकोगी क्या?

लोग बहुत हैं हर तरफ़
साफ़ तुम दिखती नहीं.
जो भीड़ चुकी है,
तुम हटासकोगीक्या?

मेरी आंखों में जो है,
दरिया नहीं सैलाब है.
इन उमड़ते पानियों में,
तुम नहा सकोगी क्या?

तुमने रास्ते बनाऐ थे,
पर रौशन नहीं किये.
इनअंधेरे रास्तों से,
कहीं जा सकोगी क्या?

ग़ज़ल


ज़ख़्म छू भर दियाऔर आराम है,
शायद उसका चारागरी का काम है.

पहले पहल कुछ बेख़ुदी सी देती थी,
अब बस शराब नाम की बदनाम है.

मुद्दतों बाददावत कामज़ा आएगा,
सुना फ़र्श़ पे बिठानें का इंतज़ाम है.

इक नज़र में फ़ना होके क्या मिला,
वो क्या बताएगा जो ख़ुद क़ुर्बानहै.

ग़ज़ल


परचे पेलिख कर नाम बढ़ा दिया होता,
काश मैंनें तुझको दिल दिखा दिया होता.

तू यक लख़्त आई सामनें तो पिघल गया,
वक्त देती तो ख़ुद को पत्थर बना दिया होता.

मैं आवारगी की धुंध में इस कशमकश में हूं,
तूने कांधे पे हाथ रख के समझा दिया होता.

आती ज़रूर ग़ज़ल सी एक शब तेरी गली,
तूनें मेरे लफ्ज़ों को ग़र मौका दिया होता.

ग़ज़ल


ना करुँगी मुहब्बत, ये कहती रही,
मेरी ख़ता,बेवफ़ाई भी सहती रही.

इन आँखों में पानी मिला हीं नहीं
नदी बरसों यूँ पलकों से बहती रही.

छत सितूनों पे खड़ा मुकम्मल रहा
पर दिवार थी सीली वो ढहती रही.

मेरा दिल है वीराँ, ये सबको बता
वहाँ दुनियाँ से छुपके तू रहती रही

ग़ज़ल


सोने चाँदी मिले नहीं, अश्कों के मोती खो दूं क्या?
इक ज़रासा दिलटूटा है, बस इतने में रो दूं क्या?

मेरी कश्ती नें तूफ़ां झेले, ज़मीं कहीं तब मिलीनहीं,
साहिल अब दिखने लगा तो ये नाव डूबो दूं क्या?

तेरी फ़ुरक़त से बहुत बड़े हैं ग़म दुनिया के,जान ले.
गुल खिला मेरे आँगन तो कांटे हर-सू बो दूं क्या?

दिल है वो आइना जिसपे जमी है तन्हाई की धूल,
तेरी सोहबत के पानी से अब आईना धो दूं क्या?



Sunday, May 6, 2018

वक़्त गुज़रता जा रहा

वक़्त गुज़रता जा रहा मंज़र बदलता हीं नहीं,
मुझ सा मेरा दिल अकेला,साथ चलता हीं नहीं.

आज़माइशों औ' मिन्नतों में उम्र तक गुज़ार दी,
वो चाँद एक पल मेरे छत पे टहलता हीं नहीं.

बरसों से है दिल में जमा एक अदद कोह-ए-ग़म*,
धूप आती जाती है, वो यख़** पिघलता हीं नहीं.

हर दिन कई नए पुराने मिलते हैं लोग खुशनुमा,
वो एक सूरत न दिखे तो दिल बहलता हीं नहीं.

पथ्थरों के शहर में अब आँख में पानी कहाँ,
चीखें गूंजती हैं पर किसी को खलता हीं नहीं.

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*कोह-ए-ग़म - mountain of pain and misery
** यख़ - cold/icy